कोरोना का समय है। मैं अपने कमरे की खिड़की पर बैठी बाहर दूर तक देख रही हूं । बहुत ठंडी हवा चल रही है। छू रही है जब मेरे चेहरे को, तो एक अलग सा सुकून मिल रहा है। हां, यही तो मैं हमेशा से चाहती थी। बैठी रहूं अपने कमरे की खिड़की में, एक कप चाय का रखा हो मेरे सामने। और यूं ही हवा चलती रहे। ऐसा ही शांत परिवेश कोई आवाज नहीं । ना कोई कार, ना कोई ट्रक और ना कोई मोटर। ऐसे में मैं इस हवा की आवाज को भी ठीक ठीक सुन पा रही हूं। इतनी शांति और इस महानगर में? तो इससे पहले जो हल्ला था, क्या वह बस ऐसे ही था? क्या हम यूं ही भाग रहे थे कहीं? अब ठहर ही गए हैं, तो चलो अपने विचारों को भी ठहराते हैं । झंजोड़ते हैं खुद को और स्वयं के भीतर चले जाते हैं। बड़ी मुश्किल से यह मौका मिला है, वरना हम दिनों, हफ्तों, महीनों और सालों बस सोचते ही रह जाते हैं।
आज दिनांक 22 अप्रैल रात 10:00 बजे पता नहीं कुछ और लिखना चाह रही थी पर जब पेन लेकर लिखने बैठी तो बस यही लिखा है यही विचार आए। और आए भी क्यों ना ? पहली बार इतने सालों में, इतनी शांति महसूस हो रही है। यह हवा का चलना, पत्तों का हिलना, जुगनू की आवाज सब कुछ सही सही सुनाई दे रहे हैं। क्या मैं फिर से सबकुछ ‘सो कॉल्ड नॉरमल’ चाहती हूं? या बस यहीं थम जाना चाहती हूं।
मेरे ठीक सामने स्विमिंग पूल है, जैसे ही हवा पड़ रही है उस पर पानी कुछ अपने ही तरीके से खुशी में झूम रहा है। अपने तरीके से रहना किसे पसंद नहीं फिर चाहे वह जानवर हो, इंसान हो या फिर यह पानी।
Always connect to your words like mine only. Thanks for beautiful expressions.